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चंद्रशेखर आजाद : दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे

chandra shekhar azad चंद्रशेखर आजाद : दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे

नई दिल्ली। देश को आजादी दिलाने और अंग्रेजो को नाको चने चबाने वाले महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद  को कौन नहीं जानता। हर कोई उनकी वीरता के प्रमाणों को आज भी याद करता है। आज पूरा देश चंद्रशेखर आजाद को उनकी जयंती के दिन याद कर रहा है। भारत को आजादी का सपना दिलाने वाले और अपने आप को आजाद कहलवाने वाले चंद्रशेखर आजाद  का जन्म आज ही के दिन 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा नामक स्थान पर हुआ था। बचपन से ही अपने मन में सच्चाई और आजादी की लड़ाई लड़ने वाले चंद्रशेखर कैसे बनें चंद्रशेखर आजाद आज हम उनकी जयंती के दिन आपको बताने वाले हैं।

चंद्रशेखर आजाद
चंद्रशेखर आजाद

असहयोग आंदोलन में गांधी जी का साथ

मां के दुलारे चंद्रशेखर हमेशा से ही अन्याय के प्रति आवाज उठाते आएं थे कुछ भी उनकी आंखों के सामने गलत होता तो चंद्रशेखर कभी चुप नहीं रहते इसी के वजह से चंद्रशेखर  महज 14 वर्ष की आयु में माता पिता से दूर बनारस आ गए जहां, उन्होंने एक संस्कृत पाठशाला में पढ़ाई की और 1920 में चंद्रशेखर गांधी जी के असहयोग आंदोलन से जुड़ गए। जहां से उनके आजाद बनने का सफर शुरू हुआ।

कैसे शुरू हुआ आजाद का सफर 

चंद्रशेखर देश को अंग्रेजो से मुक्त कराने के लिए हर उस काम को करते जो अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ था जिस वजह से एक बार चंद्रशेखर को गिरफ्तार किया गया जहां उन्हें जज के समक्ष पेश किया गया और जब उनके उनका नाम पूछा गया तो उन्होंने अपना नाम आजाद बताया। पिता का नाम ‘स्वतंत्रता’ और ‘जेल’ को उनका निवास बताया। ऐसा करने पर चंद्रशेखर को 15 कोड़ों की सजा दी गई जो उन्होंने हसंते हसंते कबूल कर ली और जब वो जेल से बाहर आए तो हर किसी की जुंबा पर सिर्फ एक ही नाम था और वो था सिर्फ चंद्रशेखर आजाद का और उन्हें तभी से लोग चंद्रशेखर आजाद कहकर पुकारने लगे और चंद्रशेखर आजाद ने अपने नाम को सच साबित कर दिखाया।

आइए जानते हैं उनके आजादी के सफऱ के बारें में

महात्मा गांधी  ने 1922 में चौरी-चौरा कांड के बाद आंदोलन वापस ले लिया। इसके बाद आजाद ने अहिंसा छोड़ कर उग्र हमलों का रास्ता अपना लिया। आजाद रामप्रसाद बिस्मिल के क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एचआरए) से जुड़े।छ यहां से उनकी जिंदगी बदल गई। उन्होंने सरकारी खजाने को लूट कर संगठन की क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाना शुरू कर दिया। उनका मानना था कि यह धन भारतीयों का ही है जिसे अंग्रेजों ने लूटा है। रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आजाद ने काकोरी षड्यंत्र (1925) में सक्रिय भाग लिया था।

आजाद का अंतिम सफर 

चंद्रशेखर आजाद (Chandra Shekhar Azad) अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में सुखदेव और अपने एक अन्य और मित्र के साथ योजना बना रहे थे। अचानक अंग्रेज पुलिस ने उनपर हमला कर दिया। आजाद ने पुलिस पर गोलियां चलाईं जिससे कि सुखदेव (यह वे सुखदेव नहीं हैं जो भगत सिंह के साथ फांसी पर चढ़ाए गए थे) वहां से बचकर निकल सके। पुलिस की गोलियों से आजाद बुरी तरह घायल हो गए थे। वे सैकड़ों पुलिस वालों के सामने 20 मिनट तक लोहा लेते रहे। उन्होंने संकल्प लिया था कि वे न कभी पकड़े जाएंगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फांसी दे सकेगी। इसीलिए अपने संकल्प को पूरा करने के लिए अपनी पिस्तौल की आखिरी गोली खुद को मार ली और मातृभूमि के लिए प्राणों की आहुति दे दी।

                                                                                        दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे,
                                                                                                    आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे

इस वाक्य को कहने वाले और इसको सच कर दिखाने वाले आजाद को हम आज उनकी जयंती के दिन शत शत नमन करते हैं। ऐसे वीर योध्दा की कुर्बानी को पूरा देश हमेशा याद रखेगा।

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