2 जून की रोटी बात सूनने में तो ऐसी लगती है जैसे ये किसी तारीख या महीने से जूड़ी हो लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है।
नई दिल्ली। 2 जून की रोटी बात सूनने में तो ऐसी लगती है जैसे ये किसी तारीख या महीने से जूड़ी हो लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है 2 जून की रोटी इसका किसी भी तारीख या महीने से कोई लेना देना नहीं है। बल्कि ये एक सीधा सा मुहावरा है। जो आमतौर पर बोला जाता है। इस मुहावरे के बारे में आज तक ये भी पता नहीं चल पाया है कि ये मुहावरा आखिरी बार पहली बार कब बोला गया था और किसने बोला था। लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ बहुत अलग है। कहीं-कहीं पर 2 जून की रोटी मेहनत की रोटी को कहते हैं।
बता दें कि हम बचपन में इस मुहावरे को बहुत सुनते थे और स्कूल की किताबों में इस मुहावरों के पढ़ा करते थे। अवध के इतिहासकार के रूप में जाने जाने वाले हिंदी के साहित्यकार योगेश प्रवीण ने कहा कि यह भाषा का रूढ़ प्रयोग है। बता दें कि हमने बचपन में ऐसे मुहावरे किताबों में बढ़े हैं जिनका अर्थ मनुष्य के जीवन की गहराईयों को छूता है।
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वहीं जैसे आज के दौर में ये 2 जून की रोटी का मुहावरा कोरोना और लॉकडाउन के चलते मजदूरों पर एक दम फिट बैठता है। क्योंकि एक वक्त था जब 2 जून की रोटी कमाने के लिए ये लोग अपना घर पिरवार छोड़कर शहरों की तरफ चले थे। लेकिन आज उसी 2 जून की रोटी के लिए उनको अपने गांव देहात वापस जाना पड़ रहा है। क्योंकि शहरों में ल़ॉकडाउन के चलते न तो मजदूरों को काम मिल रहा है और न ही 2 जून की रोटी।
हास्य व्यंग्य कवि सर्वेश अस्थाना ने बताया कि हम दो मार्च या दो अप्रैल की रोटी क्यों नहीं कहते इसके पीछे बड़ा अर्थ है। दो जून की रोटी का अर्थ महीना बल्कि वो समय सुबह और शाम का खाना होता है। साधारण शब्दों में इसका मतलब कड़ी मेहनत के बाद भी लोगों को दो समय का खाना नसीब नहीं होता है। दो जून अवधी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ वक्त या समय होता है। इससे ही यह कहावत अस्तित्व में आई।