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तर्क नहीं फिर भी मस्त है ‘ढिशूम’, जानें रिव्यू

Dhishoom तर्क नहीं फिर भी मस्त है 'ढिशूम', जानें रिव्यू

नई दिल्ली। रोहित धवन की ‘ढिशूम’ एक हल्की-फुल्की मनोरंजक फिल्म के तौर पर पंसद आ सकती है। सबसे पहले बात कहानी की। कहानी में क्रिकेट, खूबसूरत लोकेशन्स, हास्य के लगभग सभी मसाले डाले गए हैं।

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कहानी में क्रिकेट के प्रति दीवानगी से लेकर मैच फिक्सिंग की कोशिश और सट्टा जैसी चीजों को उठाया गया है। लेकिन कहानी में लॉजिक यानी तार्किकता की कोई जगह नहीं है। कब, क्यों और कैसे? जैसे सवालों में उलझे बिना अगर आप फिल्म देखें तो इसका भरपूर मजा उठा सकते हैं। ढिशूम में आपको वह सब मिलता है जो अपेक्षा लेकर आप कोई भी मसाला फिल्म देखने जाते हैं।

फिल्म की गति तेज है और लंबाई कम। जॉन और वरुण का तालमेल कहानी की ढीली पकड़ की कमी को पूरा करता है। फिल्म में क्रिकेट के प्रति दीवानगी को भुनाने की पूरी कोशिश की गई है। भारत और पाकिस्तान के मैच से ठीक दो दिन पहले विराट कोहली या सचिन की तर्ज पर बुने गए किरदार यानी भारत के सबसे दमदार खिलाड़ी विराज शर्मा (साकिब सलीम) का अपहरण हो जाता है और भारतीय स्पेशल टास्क फोर्स के अधिकारी के रूप में जॉन अब्राहम ( कबीर सहगल) और मध्यपूर्व पुलिस फोर्स के नाकाबिल समझे जाने वाले अधिकारी वरुण धवन (जुनैद अंसारी) को उसे मैच से पहले ही खोज निकालने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है।

कहानी में हालांकि दम नहीं है, लेकिन अरेबियन नाइट्स सरीखे लोकेशन्स, बैकग्राउंड में चलता गाना और हास्य परोसती पंच लाइन्स फिल्म को बांधे रखती है। जॉन एक सख्त या फिल्म की अभिनेत्री की भाषा में कहें तो सडू पुलिस अधिकारी की भूमिका के साथ न्याय करते नजर आते हैं। वरुण को एक खोटे सिक्के की तरह पेश किया गया है, लेकिन ऐसा सिक्का जो चल निकलता है और मध्य पूर्व पुलिस के अधिकारी कहानी के प्लॉट को आगे बढ़ाते हुए तुक्के से ही सही खोजबीन को भी आगे ले जाता है। इसमें उसकी मदद करता है उसका कुत्ता ब्रैडमैन। वरुण की कॉमिक टाइमिंग शानदार है।

जहां इन दिनों ‘बाजीराव मस्तानी’ और ‘कहानी’ सरीखी फिल्मों में अभिनेत्रियों के लिए कथानक में काफी गुंजाइश रखी जाती है, ढिशूम इस लिहाज से निराश करती है। एक चोरनी के किरदार में नजर आईं जकैलिन फर्नाडिस के पास एक आइटम सॉन्ग और हीरो को लुभाने के अलावा ज्यादा कुछ करने को नहीं है। फिल्म अगर दिमाग लगाए बिना केवल मनोरंजन के लिहाज से देखना चाहें तो फिल्म देखने जरूर जाएं। कलाकारों के बीच अच्छा तालमेल हास्य दश्यों को मजेदार बनाता है।

विलेन वाघा के रूप में अक्षय खन्ना ने लंबे समय बाद वापसी की है। हालांकि उनके अभिनय में दम नजर आया, लेकिन विलेन के रूप में उनके किरदार में नएपन की कमी जरूर खलती है। फिल्म में अक्षय कुमार एक छोटे, लेकिन अलग किरदार में नजर आते हैं। पहली बार एक समलिंगी सरीखे किरदार में बालों का जूड़ा बनाए फिल्म के दोनों अभिनेताओं को लुभाने की कोशिश करते वे चौंका देते हैं।

सुषमा स्वराज के रूप में गढ़ा गया मोना अंबेगांवकर का किरदार प्रभाव छोड़ता है। मोना जितनी देर भी पर्दे पर रहती हैं, बेहतरीन नजर आती हैं।

अभिजीत वघानी का बैकग्राउंड म्युजिक लुभाता है और प्रीतम का गाना ‘सौ तरह के ..’ फिल्म को दम देता है। मनोरंजन परोसने के चक्कर में फिल्म की कहानी में थ्रिल अपना असर खोता नजर आया। अयानंका बोस की सिनेमाटोग्राफी ऊंचे दर्जे की है। फिल्म का दम यही है कि कमियों के बावजूद यह मनोरंजन करने में कामयाब है।

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