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अल्मोड़ा: नंदादेवी मेले की भव्य शुरुआत, ढोल नगाड़ों के साथ कदली वृक्षों को लाया गया मंदिर परिसर में

Screenshot 2062 अल्मोड़ा: नंदादेवी मेले की भव्य शुरुआत, ढोल नगाड़ों के साथ कदली वृक्षों को लाया गया मंदिर परिसर में

Nirmal Almora 1 अल्मोड़ा: नंदादेवी मेले की भव्य शुरुआत, ढोल नगाड़ों के साथ कदली वृक्षों को लाया गया मंदिर परिसर में
निर्मल उप्रेती, संवाददाता

अल्मोड़ा में ऐतिहासिक व प्रसिद्ध नंदादेवी मेले की भव्य शुरुआत हो चुकी है। आज नंदा देवी मेले में मां नंदा सुनंदा की मूर्ति निर्माण के लिए ढोल नगाड़ों के साथ विधि विधान से कदली वृक्षों को मंदिर परिसर में लाया गया।

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इस दौरान मां नंदा सुनंदा के नारों के साथ भव्य शोभा यात्रा भी निकाली गई। देर शाम को इन कदली वृक्षों की चंद वंशीय परिवार द्वारा पूजा अर्चना कर मां नंदा सुनन्दा की मूर्ति का निर्माण किया जाएगा। जिसमें प्राण प्रतिष्ठा भी की जाएगी।

अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिक नन्दादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है। अल्मोड़ा शहर सोलहवीं शती के छठे दशक के आसपास चंद राजाओं की राजधानी के रूप में विकसित हुआ था। यह मेला चंद वंश की राज परम्पराओं से सम्बन्ध रखता है। पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी की प्रतिमायें बनायी जाती हैं। पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होता है। यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं। नन्दा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नन्दादेवी की तरह बनाया जाता है। स्कंद पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नन्दा पर्वत के शीर्ष पर नन्दादेवी का वास है। भगवती नन्दा की पूजा तारा शक्ति के रूप में षोडशोपचार, पूजन, यज्ञ और बलिदान से की जाती है।

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यह मातृ-शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है, जिसकी कृपा से राजा बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ। षष्ठी के दिन गोधूली बेला में केले के वृक्षों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है। षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत, पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्त्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है। धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की ओर फेंके जाते हैं। जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है , जो दूसरा हिलता है, उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं।

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पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्ववान महिषासुर मर्दिनी के रूप में किया जाता है। सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है। इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते हैं। उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है। प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है। मध्य रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा करने के बाद पूजा सम्पन्न होती है। मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है। इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं, अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न की जाती है। अन्त में डोला उठता है, जिसमें दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं। नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं।

Screenshot 2064 अल्मोड़ा: नंदादेवी मेले की भव्य शुरुआत, ढोल नगाड़ों के साथ कदली वृक्षों को लाया गया मंदिर परिसर में

अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है। इस मेले के दौरान कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक जगरिये मंदिर में आकर नन्दा की गाथा का गायन करते हैं। मेले में झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सुनाई देते हैं। कहा जाता है कि कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नन्दादेवी मेला देखना जरुरी है।

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