सुशील कुमार
लखनऊ। उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में विधानसभा चुनाव की सरगर्मी बढ़ चुकी है। वोटरों को लुभाने के लिए राजनीतिक दलों ने घोषणाएं भी करनी शुरू कर दी हैं। इस बीच यूपी की सियासत की अहम कड़ी दलित वोट बैंक को अपने पाले में लाने के लिए बसपा (BSP) के अलावा भाजपा (BJP), सपा (SP), कांग्रेस (Congress) समेत छोटे दल भी जुट गए हैं। हालांकि आमतौर पर धारणा है कि दलितों का एक बड़ा धड़ा बसपा के साथ हमेशा से रहा है। डॉ.अंबेडकर की विचारधारा पर चलने का दावा करने वाली बसपा से अब दलितों की नाराजगी बढ़ रही है। ऐसे में दूसरे दल इस नाराजगी को भुनाने की कवायदों में जुटे हुए हैं। यही कारण है कि चुनाव के ठीक पहले एक बार फिर राजनीतिक दलों को अंबेडकर की याद आने लगी है।
भाजपा ने दलितों को रिझाने के लिए लखनऊ के ऐशबाग (Aishbagh) में डॉ. अंबेडकर स्मारक सांस्कृतिक (Dr. Ambedkar Cultural Center) केंद्र बनाने का ऐलान किया है। हाल ही में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (President Ramnath Kovind) ने इसका शिलान्यास भी किया है। भाजपा के इस ऐलान के बाद दूसरे दलों ने बीजेपी पर निशाना साधा है। बसपा प्रमुख मायावती (Mayawati) ने इसे नौटंकी तक कह दिया है। मायावती ने आरोपों की झड़ी लगाते हुए कहा था कि बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर (Dr. Bheem Rao Ambedkar) व उनके करोड़ों शोषित-पीड़ित अनुयाइयों का सत्ता के लगभग पूरे समय उपेक्षा व उत्पीड़न करते रहने के बाद अब विधानसभा चुनाव के नजदीक यूपी भाजपा सरकार द्वारा बाबा साहेब के नाम पर ’सांस्कृतिक केन्द्र’ का शिलान्यास करना यह सब नाटकबाजी नहीं तो और क्या है? हालांकि, ये राजनीतिक आरोपों और प्रत्यारोपों का दौर है। चुनाव के ठीक पहले अंबेडकर की याद आना राजनीतिक दलों की मजबूरी है। इसके पीछे का कारण है दलित वोट बैंक। सिलसिलेवार समझते हैं यह अंबेडकर में आस्था का चुनावी गणित…
भाजपा: 52 हजार जगह दलित विमर्श की सफलता के बाद अंबेडकर स्मारक का ऐलान
2017 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भी भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janta Party) ने दलितों को अपने पाले में लाने के लिए कई कवायदें की थी। डॉ. अंबेडकर की 125वीं जयंती के बीच भाजपा ने पूरे यूपी में 52 हजार जगहों पर दलित विमर्श करने का निर्णय लिया गया था। प्रदेश की 52 हजार ग्राम पंचायतों में एक साथ दलित विमर्श कराया गया था।
इसका नतीजा भाजपा को चुनावों में भी देखने को मिला था। इस बीच पांच साल बाद एक बार फिर बीजेपी को बाबा साहेब की याद आ गई है। इस बार अंबेडकर स्मारक के बहाने भाजपा दलितों को अपने पाले में लाने का प्रयास कर रही है। हालांकि बीजेपी अंबेडकर जयंती को समरसता दिवस के रूप में मनाने का ऐलान करती रही है।
सपा: दलित दिवाली के बाद बाबा साहेब वाहिनी के बहाने दलितों को साधने का प्रयास
समाजवाद का नारा बुलंद करने वाली समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) आमतौर पर डॉ. अंबेडकर से दूरी बनाती रही है। उसके पोस्टर बैनरों पर अंबेडकर कभी-कभार ही दिखाई देते रहे हैं। लेकिन, 2019 लोकसभा चुनाव के समय बसपा से गठबंधन के बाद सपा ने अपना रूख बदला। लोकसभा में करारी हार के बाद बसपा ने सपा से गठबंधन तोड़ने का ऐलान किया तो अखिलेश ने भी मायावती से नाराज दलित वोट बैंक को अपने पाले में लाने के लिए दलित दिवाली मनाने का ऐलान कर दिया।
हालांकि, सपा द्वारा घोषित इस ऐलान का दलित बुद्धिजीवियों ने कड़ा विरोध भी किया। सोशल मीडिया पर अखिलेश को लेकर तंज कसे गए। दलितों का तर्क था कि अंबेडकर पूजा-पाठ से दूरी बनाकर रहते थे। हालांकि, उसके बाद दलितों को अपने पाले में लाने के लिए सपा बाबा साहेब वाहिनी का गठन किया। इस वाहिनी के जरिए दलित युवाओं को अपने पाले में लाने का प्रयास किया जा रहा है।
कांग्रेस: बाबा साहेब के विचारों व सिद्धांतों के बहाने दलितों में पैठ बनाने का प्रयास
यूपी में आजादी के बाद से बसपा के गठन तक दलितों का कांग्रेस का वोट बैंक माना जाता रहा है। यही कारण रहा कि बसपा के उदय के बाद यूपी में कांग्रेस (Congress) लगातार कमजोर होती गई। इस बीच कांग्रेस भी चुनाव के ठीक पहले बाबा साहेब पर अपनी दावेदारी करती रही है। कांग्रेस हमेशा कहती रही है कि बाबा साहेब को हमने ही कानून मंत्री बनाया था। कांग्रेस ने दलितों के बीच जाकर बाबा साहेब के सिद्धांतों और विचारों के प्रचार के बहाने उनको अपने पाले में लाने का प्रयास कर रही है।
छोटे दलों का भी दावा, अंबेडकर हमारे
यूपी की सियासत में छोटे दलों की भी भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। सभी बड़े दल इन छोटे दलों को अपने साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं। इसका बड़ा कारण है विशेष जाति समूहों पर इनकी पकड़ का होना। यूपी की बात करें तो यहां यह आंबेडकरी विचारधारा की राजनीति करने का दावा करने वाली कई छोटी पार्टियां भी हैं। जबकि, बसपा से टूटकर कई नेताओं ने अपना राजनीतिक दल बनाया है। ये आज की तारीख में या तो किसी पार्टी के साथ गठबंधन कर चुके हैं या विलय कर चुके हैं।
बसपा से अलग होकर पार्टी बनाने वालों में ओमप्रकाश राजभर (सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी), बाबू सिंह कुशवाहा (जन अधिकार मंच), सावित्री बाई फूले (कांशीराम बहुजन समाज पार्टी), दद्दू प्रसाद (सामाजिक परिवर्तन मंच), लालमणि प्रसाद (बहुजन सेवा पार्टी), पूर्व आईएएस राम बहादुर (नागरिक एकता पार्टी), लाखन राज पासी (भारतीय क्रांति रक्षक पार्टी), पूर्व आईपीएस एसआर दारापुरी (ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट), जगजीवन प्रसाद (भारतीय संगठित पार्टी), गंगाराम आंबेडकर (मिशन सुरक्षा परिषद), पूर्व आईएएस चंद्रपाल और पूर्व आईएएस हरिश्चंद्र शामिल हैं। वहीं हाल ही में बसपा से निष्काषित होने वाले विधायकों ने भी लालजी वर्मा के नेतृत्व में नई पार्टी बनाने का ऐलान किया है।
क्यों इतने महत्वपूर्ण हैं दलित
अब सबसे बड़ा सवाल उठता है कि यूपी में दलित इतने महत्वपूर्ण क्यों हो जाते हैं। आखिर क्यों सभी दल अचानक से आंबेडकरी रंग में रंगने का दिखावा करने लगते हैं। इसके पीछे का कारण है 22 फीसदी दलित वोटरों का होना। 22 फीसदी दलित वोटर में जाटवों की संख्या करीब 12 फीसदी है। जो बसपा का कोर वोटर माना जाता है।
जबकि, दूसरे दल गैर जाटव वोटरों को लुभाने की कवायदों में जुटे हुए हैं। मायावती भी अभी तक जाटव वोटरों पर अपना एकाधिकार मानती रही हैं। लेकिन अब इन वोटरों के खिसकने का खतरा पहली बार महसूस हो रहा है। जबकि, गैर जाटव वोटरों के बसपा से खिसकने का सिलसिला काफी पहले से ही शुरू हो चुका है।
यूपी की सुरक्षित सीटें बन रहीं सत्ता की गारंटी
उत्तर प्रदेश आरक्षित वर्ग की कुल 87 सीटें हैं। ये सीटें यूपी में सत्ता की गारंटी बनती जा रहीं हैं। यूपी की सत्ता के लिए 202 सीटों का बहुमत जरूरी है। जिसमें एससी के लिए 85 और दो एसटी की सीटें हैं। पिछले तीन चुनावों पर नजर डालें तो यहां पर जिस पार्टी ने इन सुरक्षित सीटों पर कब्जा जमाया है, उसने सत्ता हासिल की है। साल 2009 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 62 सुरक्षित सीटों पर जीत हासिल की थी। नतीजा 207 सीटों के साथ बहुमत मिला था।
जबकि, 2012 में सपा ने इन सुरक्षित सीटों से बसपा को साफ करते हुए 58 सीटें अपने नाम की और प्रदेश में कुल 224 सीटों पर जीत के साथ बहुमत हासिल किया। वहीं 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 87 में से रिकॉर्ड 69 सीटें जीतीं और प्रदेश में 325 सीटों के साथ सत्ता पर आसीन हुई।