लखनऊ। आज दुनिया इक्कीसवीं सदी में प्रगति की राह पर चल रही है। महिलाओं के लिए पुरूषों से कदम से कदम और कंधे से कंधे मिलाकर चलने का दौर है। आज महिलाएँ किचन और बिस्तरों से उठकर किसी भी मुल्क के लिए प्रगति में बराबर की भागीदार हो रहीं हैं । स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, ऑफिस, स्पोर्ट्स, राजनीति हर जगह महिलाए नये कीर्तिमान रच रही हैं।
इक्कीसवीं सदी महिलाओं की सदी है। ऐसा तभी संभव हो पाया जब लोगो की सोच महिलाओं के लिए उदारवादी हुई हैं। तमाम ऐसे आंदोलन और महा पुरूषों/नारियों के सराहनीय कदमों और संघर्ष के बदौलत महिलाओं को शिक्षा और आर्थिक आजादी के मौके मिले। लेकिन ऐसा नही था कि नारी-मुक्ति का संघर्ष मानव इतिहास से ही शुरू हुआ हो। प्राचीन भारत के सिंधु सभ्यता में मातृसत्ता के प्रमाण मिलते हैं तो वैदिक सभ्यता में गार्गी, अपाला, घोषा और लोपमुद्रा जैसी विदुषी महिलाओं नें वेदो की रचना की है। बराबरी का अधिकार उनका सार्वभौम अधिकार रहा है और हमेशा रहेगा। जिसे हासिल करने के लिए महिलाओं के साथ-साथ प्रगतिशील पुरूषों को भी संघर्षरत रहना चाहिए क्योंकि नारी-मुक्ति संघर्ष सिर्फ महिलाओं की ही नहीं बल्कि उन महिलाओं के पिता, भाई और दोस्त की भी लड़ाई है जो महिलाओं को गैर-बराबरी की लड़ाई लड़ते हुए और जीतते हुए देखना चाहते हैं।
उत्तर वैदिक काल के बाद महिलाओं के अधिकारों का निरंतर हनन हुआ है जो मध्यकाल में चरमोत्कर्ष पर पहुँचा। महिलाओं को घर की नौकरानी और भोग की वस्तु से ज्यादा कुछ नही समझा गया।
“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता” वाले मनुस्मृति में ही आगे लिखा है कि
“पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति”
अर्थात स्त्री जब तक बालिका है उनकी रक्षा की जिम्मेदारी पिता की है, जवानी में पति की, बुढ़ापे में स्त्री की रक्षा का दायित्व पुत्र को है, महिलाओं को स्वतंत्र रहने का अधिकार नहीं ।
कुरान के चौथे अध्याय के चौंतिसवें आयत में महिलाओ को पीटने के स्पष्ट आदेश हैं। इस तरह हम देखते हैं कि किस तरह धर्म ने महिलाओं को महज ‘चीज’ या ‘माल’ बना कर रख दिया है। विज्ञान के बढ़ते वर्चस्व ने धर्म को चुनौती दी और महिलाओं के लिए आजादी का रास्ता खोला।
फिर भी आज समाज का एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो नारी-मुक्ति और महिला विमर्श के खिलाफ खड़ा है । अंबेडकर द्वारा हिन्दू कोड बिल का विरोध ऐसे ही लोगो ने किया था। ऐसे लोग समाज के हर क्षेत्र में मौजूद हैं राजनीति, स्पोर्ट्स, फिल्म और कला जैसे प्रोग्रेसिव क्षेत्र में ऐसे लोगो की पकड़ मजबूत है। हिन्दी सिनेमा के एक प्रसिद्ध फिल्म में एक डायलाग है “मर्द को दर्द नही होता”।
घोर पुरूषवादी समाज में ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ जैसे वाक्य बेहद घटिया और स्त्री विरोधी डायलाग हैं । ये अपमान हैं उन आधी आबादी का जो हर महीने दर्द से गुजरती हैं । बजाय हम उनके दर्द के सहभागी होने के यदि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ जैसे वाक्यों का प्रयोग करते हैं, तो क्या हम उनके दर्द का उपहास नहीं उड़ाते ?
खुद को इतना प्रगतिशील दिखाने के बावजूद सच्चाई ये है कि आज भी भारत में ‘पीरियड्स’ का आना घृणा की दृष्टि से देखा जाता है । गाँवो में महिलाएँ माहवारी के दिनों में मंदिर नहीं जाती, पूजा नहीं करती, बिना नहाए रसोई में नहीं जाती और कोई भी शुभ काम नहीं करती । ये दर्शाता है कि माहवारी को लेकर उनमें कितनी भ्रांतियाँ हैं । गाँवों में कहा जाता है कि माहवारी वाली लड़कियों को कौव्वा भी नही छूता । माहवारी एक नैसर्गिक और महत्वपूर्ण प्रकिया है फिर हम उनके साथ ऐसे अछूत जैसा बर्ताव क्यों करते हैं ?
विकास की राह पर अग्रसर भारत में सिर्फ छत्तीस प्रतिशत महिलाएँ ही सैनेटरी पैड इस्तेमाल करती हैं क्योंकि उनमें जागरूकता की कमी है और ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई इस ‘अछूत’ समस्या पर बात नहीं चहता । ये कितना शर्मनाक है । आज जागरूक लोगो के कंधो पर ये जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वें ज्यादा से ज्यादा लोगो को इस विषय पर जागरूक करें और सबसे महत्वपूर्ण कि उनके साथ अछूत जैसा बर्ताव न करें, उनसे खुलकर इस विषय पर बात करें और उनके मुश्किल वक्त पर उनका सहयोग करें ।
एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार भारत में सत्तर फीसदी लड़कियों को उनके पहले मासिक आने से पहले मासिक धर्म के बारे में पता ही नहीं होता । ये कितने हैरत की बात है कि जहाँ चार-पाँच साल के बच्चे बड़ी आसानी से फोन लैपटाॅप चला लेते हैं वहाँ टीनएजर्स को इतनी महत्वपूर्ण बात के बारे में पता ही नहीं होता । मैनें कई लोगो से इस विषय पर बात की तो जवाब मिला कि ‘शर्म’ आती है । जिस देश में महिलाओं की एक बड़ी संख्या शौच के लिए खुले में जाती हो उसी देश में मासिक चक्र पर बात करने में उन्हे शर्म आती है, ये कितना हास्यास्पद है ।
इस अज्ञानता का सबसे बड़ा कारण मासिक चक्र के बारे में कोई भी विमर्श करना नही है । ऐसे में यदि घर के पुरूष जागरूकता का जिम्मा उठा लें तो निश्चित रूप से घर की महिलाएँ मासिक चक्र पर बात करने में कंफर्ट महसूस करेंगी और सहजता से अपनी परेशानियों को शेयर कर सकेंगी ।
एक पुरूष होने के नाते हमारा ये परम कर्तव्य होना चाहिए कि हम अपने आस पास की महिलाओं चाहे वें हमारी माँ हो, बहन हो, दोस्त हो, प्रेमिका हो अन्यथा पत्नी हो को हर महीने आनी वाली परेशानी में उनका सहयोग दें । अब सवाल है कैसे सहयोग दें ? तो इसके लिए बस आपको इतना करना है कि जो प्रेम और सहयोग वो आपको साल के तीन सौ पैसठ दिन देती हैं आप भी उतना ही उनको दें और महीने के चार दिन उसमें कुछ एक्स्ट्रा दें । मसलन चार दिन खुद घर का काम करना और उन्हे आराम देना। उन्हे ज्यादा मेहनत वाले काम करने से बचाना और ‘मूड स्विंग’ से बचाने के लिए उन्हे खुश रखना । उन दिनों के ‘मूड स्विंग’ की वजह से महिलाएँ अक्सर चिड़चिड़ी हो जाती है, उनके चिड़चिड़ेपन को सहकर लेना ।
आमतौर पर पुरूषवादी समाज में घर का काम करना मसलन खाना पकाना, बच्चे संभालना और साफ-सफाई करना महिलाओं का काम घोषित कर दिया है । इतने काम करने के बाद ये कहना कि मेरे घर की औरतें काम नही करती, वो ग्रहणी है । कितनी सफाई से इतना बड़ा झूठ बोल दिया जाता है । यकीनन अगर निष्पक्ष रूप से ग्रहणियों के काम का हिसाब किया जाए तो इसमें मानव इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला सामने आएगा। ग्रहणी होने के नाम पर उन्हे कोई वेतन नही मिलता, बदले में सिर्फ दो वक्त का खाना और ताना मिलता है और हर महीने उन्हे अछूत जैसा व्यवहार सहना पड़ता है।
एक सत्य तथ्य ये भी है कि माहवारी शुरू होते ही बहुत से बच्चियों का स्कूल छुड़वा दिया जाता है। हमें उनका स्कूल छुड़वाने के बजाए उन्हे मानसिक रूप से और मजबूत करना चाहिए ताकि उन्हे भी इंसान होने का सही अधिकार मिल सके । एक समझदार और नेकदिल इंसान होने के नाते समाज के हर वर्ग के पुरूषों का ये परम दायित्व होना चाहिए कि वें अपने आस पास की महिलाओं के साथ हो रहे अन्याय के विरूद्ध मजबूती से खड़े हो और दकियानूसी रूढ़िवादी विचारों को जड़ से समाप्त करने के लिए संगठित हों ।
बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था कि किसी भी देश की प्रगति का मापदंड उस देश की महिलाओं की स्थिति से आंकना चाहिए । तो इस तरह यदि हम इस देश की महिलाओ को हाशिए पे रखते जाएंगे तो ये देश कभी विकसित नही हो सकेगा इसलिए ये जरूरी है कि हम महिलाओं को वही सम्मान दें जिसकी वो अधिकारी हैं । तभी इस देश में बराबरी आ सकेगी और सही मायनों में विकास और खुशहाली भी ।
– 28 मई को पड़ने वाले विश्व माहवारी दिवस (World Menstrual Hygiene Day) पर यह लेख स्वतंत्र लेखक सम्राट विद्रोही ने लिखा है। इसमें लिखे विचार लेखक हैं। |