चंडीगढ़। तो अब पंजाब में क्या होगा? यह सवाल बड़ा है। पंजाब में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर जो धारणा राजनीतिक परिदृश्य पर साया हो रही है, उससे अब तक यही लग रहा था कि आम आदमी पार्टी (आप) पंजाब में बहुमत के साथ सरकार बनाएगी। लेकिन भाजपा के बागी पूर्व क्रिकेटर और पूर्व सांसद नवजोत सिंह सिद्धू के नए मोर्चा ‘आवाज-ए-पंजाब’ के साथ मैदान में उतर आने से आप की मुश्किल थोड़ी बढ़ गई है।
सिद्धू ने नशा, भ्रष्टाचार, विकास और पंजाबियत को अपना मुद्दा बनाया है। सिद्धू के मैदान में उतरने से पहले तक की सट्टा बाजार की धारणा पर बात करें तो 117 सदस्यीय पंजाब विधानसभा में आप 65 से ज्यादा सीटें जीतती दिख रही थी। वहीं अकाली-भाजपा 25 सीटों तक और कांग्रेस भी 25 सीटों तक सिमटती दिख रही थी। इसकी वजह थी।
दरअसल, पंजाब में नशे के कारोबार पर अंकुश नहीं लगा पाने से अकाली दल के खिलाफ भारी नाराजगी है। अकाली दल के आलाकमान प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर सिंह बादल को ‘खलनायक’ के रूप में स्थापित किया जाने लगा है। वैसे ही, जैसे 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले डॉ. मनमोहन सिंह और दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले शीला दीक्षित को खलनायक के रूप में स्थापित किया गया था। जब सत्ता में बैठे किसी नेता के प्रति धारणा खलनायक के रूप में स्थापित होने लगती है तो उसके द्वारा किए गए अच्छे कार्यों की भी अनदेखी होने लगती है। साथ ही इसका परिणाम उसके साथियों को भी भोगना पड़ता है, भले ही वे साथी उन नकारात्मक कार्यों में साथ न दिए हों। इसी कारण भाजपा को अकाली दल के साथ होने का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
कांग्रेस अब तक इस खुशफहमी में थी कि अकाली-भाजपा गठजोड़ से जनता निराश होगी तो फायदा उसी को होना है। लेकिन दिल्ली में सत्तारूढ़ आप के पंजाब में सक्रिय हो जाने से कांग्रेस और कैप्टन अमरिंदर सिंह का गणित गड़बड़ा गया है। हालांकि यह भी सही है कि पंजाब प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रहे प्रताप सिंह बाजवा ने अपने कार्यकाल में पंजाब में नशे को मुद्दा बनाने की दिशा में बहुत काम किया था। लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह पटियाला के नरेश खानदान के हैं। उनका ‘राजसी खून’ उनके जनता की आवाज बनने में आड़े आता है। इससे बाजवा के किए कार्यो का लाभ कांग्रेस को मिलता नहीं दिख रहा है।
इस बात को इस तरह देखिए- कांग्रेस के कार्यकाल में घोटालों की बाढ़ आई। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण को भ्रष्टाचार का मुद्दा समझ में आया। वर्ष 2009 में आडवाणी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्रा निकाली। लेकिन कुछ पार्टी की कमजोरी, कुछ अन्य कारणों से आडवाणी इस रथयात्रा के जरिए भ्रष्टाचार को बड़े मुद्दे के रूप में स्थापित नहीं कर पाए और पार्टी चुनाव हार गई।
(संदीप त्रिपाठी, पत्रकार)