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जिन्ना के छल का शिकार : बलोचिस्तान

Jinnah जिन्ना के छल का शिकार : बलोचिस्तान

बलोचिस्तान पाकिस्तान का वह ‘विषबीज’ है जिसका जन्म, जिन्ना के मुस्लिम साम्राज्यवाद की दिमागी प्रयोगशाला में कश्मीर की ही तरह 1947 से पहले ही हो चुका था। अलबत्ता यह अवश्य है कि पाकिस्तान में इस से तैयार ‘विषवृक्ष’ को एक सैनिक कार्रवाई के बाद, एक अप्रैल 1948 को रोपा गया। यह दृष्टव्य है कि प्रधानमंत्री की इस घोषणा के बाद से पाकिस्तान-अफगानिस्तान की चमन सीमा का दरवाजा आवा-जाही के लिए अब तक बंद है। कारण, पाकिस्तानी सीमा में पाक नागरिकों ने 14 अगस्त को स्वाधीनता दिवस के कार्यक्रम में मोदी विरोधी नारे लगाए थे। अगले दिन 15 अगस्त को अफगानियों उसका जाम कर जवाब दिया। बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ और पाकिस्तानी झण्डा जला दिया गया। यह काम वहाँ भारत से गए मोदी भक्त नहीं कर रहे थे।

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कुछ ही दिन बाद, मोहाजिर क़ौमी मूवमेंट के अलताफ़ अहमद ने पाकिस्तान को विश्व का कैंसर कह दिया। भारत द्वारा इस तरह के बयान की बहुत दिनों से प्रतीक्षा थी। अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हमीद करजाई भी प्रधानमंत्री के बयान की प्रशंसा करने से स्वयं को नहीं रोक पाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वाधीनता दिवस के भाषण के तत्काल बाद ही अकबर बुगती के पुत्र बरहमदाग बुगती के आए बयान से साफ है कि प्रधानमंत्री द्वारा बलोचिस्तान का उल्लेख किया जाना महज़ संयोग नहीं एक सोची हुई रणनीति है।

बलोचिस्तान : एक परिचय

बलोचिस्तान पाकिस्तान का पश्चिमी प्रांत है। यह भौगोलिक रूप से बहुत बड़ा है और यह ईरान के (सिस्तान व बलोचिस्तान प्रांत) तथा अफ़ग़ानिस्तान के सटे हुए क्षेत्रों में बँटा हुआ है। यहां की राजधानी क्वेटा है। यहाँ के लोगों की प्रमुख भाषा बलूच या बलूची है। यह प्रदेश पाकिस्तान के सबसे कम आबाद इलाकों में से एक है और पूरे पाकिस्तान का चौआलिस प्रतिशत है। किन्तु पाकिस्तान की कुल छः फ़ीसदी आबादी ही यहाँ रहती है। यहाँ पर जनसँख्या का घनत्व बाईस व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। बलोचिस्तान में कुल सत्ताईस जिले हैं।

मुख्यतः क़बायली इलाका :

पितृ वंशीय बलोच, विभिन्न कबीलों में बंटे हुए हैं। कबीले के सरदार के प्रति आस्था पर कोई सवालिया चिह्न नहीं लगा सकता। यहाँ न्याय व्यवस्था भी कबायली है और मुख्य रूप से आपसी विवाद जिरगों के माध्यम से ही सुलझाए जाते हैं। बलोचिस्तान के मुख्य बलोच कबीले हैं : बुगती, यह बलोच-भाषी हैं और इन्हें बलोचिस्तान का सबसे शक्तिशाली क़बीला माना जाता है। परवेज़ मुशर्रफ द्वारा मारे गए अकबर बुगती इसी कबीले के सरदार थे।

मर्री, यह बलोच-भाषी लोग पाकिस्तान के बलोचिस्तान के कोहलू, सिबी, जाफ़राबाद और नसीराबाद ज़िलों के निवासी हैं। यह अलगाववादी विचारधारा से ख़ुंख़ार तरीके से लड़ने के लिए पहचाने गए हैं। मेंगल, यह ब्राहुई-भाषी हैं और इनका क़बीला बड़ा क़बीला माना जाता है। यह बलोचिस्तान के चग़इ, ख़ुज़दार और ख़ारान ज़िलों में रहते हैं। बिज़ेंजो, यह बलोचिस्तान के अवारान ज़िले में रहते हैं।

लांगो, यह बलोचिस्तान के मध्य में रहते हैं। लांगो क़बीले में प्राथमिक रूप से बलोची बोली जाती है लेकिन बहुत से लोग ब्राहुई भी द्वितीय भाषा के रूप में बोलते हैं। बंगुलज़ई, यह एक ब्राहुई-भाषी क़बीला है और बलोचिस्तान के बड़े क़बीलों में गिना जाता है। बलोचिस्तान को पूर्व में कलात के नाम से भी जाना जाता है। अंग्रेजी साम्राज्य के अंतिम दिनों में कश्मीर की ही भांति कलात भी स्वयं केलिए स्वतंत्र राष्ट्र का स्वप्न देख रहा था।

प्राचीन इतिहास :

बलूची लोगों का मानना है कि उनका मूल निवास सीरिया के इलाके में था और उनका मूल सेमेटिक, एफ्रो-एशियाटिक है। आज का दक्षिणी बलोचिस्तान ईरान के कामरान प्रांत का हिस्सा था जबकि उत्तर-पूर्वी भाग सिस्तान का अंग था। सन् 652 में मुस्लिम खलीफ़ा उमर ने कामरान पर आक्रमण के आदेश दिए और यह इस्लामी ख़िलाफ़त का अंग बन गया। बाद में उम्मयदों ने इस पर कब्जा कर लिया। इसके बाद यह मुगल हस्तक्षेप का भी शिकार हुआ। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान 1839, 1854 और 1876 में कलात ने अंग्रेजों से संधि की किन्तु यह कभी भी अंग्रेजी साम्राज्य का हिस्सा नहीं रहा।

बलोचिस्तान और अंग्रेजी हुकूमत :

1876 की संधि जो कि खान-ए-कलात मीर खोदाद खान और ब्रिटिश सरकार के बीच हुई थी के तीन प्रमुख बिंदु थे। पहला, खान-ए-कलात मीर नसीर खान और ब्रिटिश सरकार के मध्य 1854 की संधि का पुष्टिकरण। दूसरा, ब्रिटिश सरकार और खान-ए-कलात मीर खोदाद खान और उनके वारिसों के प्रति परस्पर दोस्ती का भाव बनाये रखने का वायदा और तीसरा, ब्रिटिश सरकार कलात की स्वतंत्रता और संप्रभुता बनाये रखेगी और किसी भी बाहरी आक्रमण में वह कलात की सुरक्षा करेगी। 1935 में गवर्मेंट आफ इंडिया एक्ट में पहली बार अंग्रेजों ने कलात को ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा दिखलाया, जब खान-ए-कलात को इस बात का पता चला तो उसने 1876 की संधि का हवाला देते हुए अपना विरोध पत्र भेजा। जिसके जवाब में उसे एकबार फिर आश्वस्त किया गया कि कलात और ब्रिटिश सरकार के बीच हुई 1876 की संधि अंतिम है और आगे से यह बात नहीं दोहराई जाएगी।

अंग्रेज़ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद किसी भी तरह से भारतीय उपमहाद्वीप से विदा होना चाहते थे, यही कारण है कि वे ऊपरी तौर पर तो खान-ए-कलात को आश्वस्त करते रहे कि कलात की स्वतंत्रता वे बनाये रखेंगे किन्तु दूसरी तरफ जिन्ना को उनका समर्थन था जो हर हालात में कलात को पाकिस्तान का हिस्सा बनाना चाहता था।

जिन्ना का छल और खान-ए-कलात की मूर्खता :

तत्कालीन खान-ए-कलात मीर अहमद यार खान और बलोचिस्तान के साथ पाकिस्तानी छल की शुरुआत भी यहीं से होती है। खान-ए-कलात मीर अहमद यार खान के सलाहकार आइआइ चुन्द्रीगर, सुल्तान अहमद, बीके मेमोन और सर वाल्टर मौनक्तों कलात के स्वतंत्र राष्ट्र बने रहने के पक्षधर थे। किन्तु खान-ए-कलात स्वयं जिन्ना से बहुत प्रभावित था। उसे लगा कि जिन्ना कलात के हित की बात करेगा सो उसने जिन्ना को आधिकारिक तौर पर कलात स्टेट का कानूनी सलाहकार बना दिया।

जैसे सारे पाकिस्तानियों को यकीन था कि पाकिस्तान की हर समस्या का हल जिन्ना के पास है वैसे ही जिन्ना भी पाकिस्तानी मामलों में खुद को हकीम लुकमान समझने लगे थे। देश आज़ाद होते ही उन्होंने सारे अच्छे खिलौने समेट कर अपने पास रख लिए थे। पाकिस्तान में जिन्ना ने जिद्द की कि वे ही पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बनेंगे। बुरे स्वास्थ्य के चलते उन्हें अपनी मौत का अहसास था किन्तु वो पाकिस्तान केलिए हकीम का सपना संजोये बैठे थे सो उसका संविधान भी वही लिखना चाहते थे, सो वो पाकिस्तानी संविधान समिति के सदर भी बन गए। इन सबके ऊपर, वो पाकिस्तान पर शासन करने वाली मुस्लिम लीग के अध्यक्ष भी बने रहे।
ऐसे में जब खान-ए-कलात ने उन्हें स्टेट का कानूनी सलाहकार बना दिया तो वह इस बात से निश्चिंत हो गये कि कलात जैसा बड़ा प्रदेश स्वतः पाकिस्तान की झोली में आ गिरा है।

उन्होंने खान-ए-कलात को यह नहीं जाहिर होने दिया कि पाकिस्तान कलात को निगलना चाहता है। उधर धार्मिक रुढ़िवादी खान-ए-कलात एक मुसलमान को सलाहकार बना कर मुतमईन हो गया था कि अंग्रेजों के जाने के बाद कलात एक स्वतंत्र राष्ट्र बन जायेगा। एक सभ्य समाज में वकील केवल उन्ही मामलों की पैरवी स्वीकार करते हैं जहाँ उसके और मुवक्किल के हित मेल खाते हैं। यदि वकील और मुवक्किल के हित अलग-अलग हों तो वकील नैतिकता के तकाजे से ऐसे मामलों से स्वयं को अलग कर लेते हैं। जिन्ना ने जान बूझ कर ऐसा नहीं किया। वे खान-ए-कलात को स्वतंत्र राष्ट्र का सपना दिखलाते रहे और साथ ही एक बड़े पाकिस्तान के मंसूबे में उसे हड़पने की चाल भी चलते रहे।

अंग्रेजों द्वारा खान-ए-कलात को आगाह किया जाना :

अंग्रेज़, कलात को सामरिक महत्व का क्षेत्र मानते थे। लार्ड माउन्टबेटन ने एक गोपनीय सन्देश तत्कालीन एडजुटेंट गवर्नर जनरल कर्नल सर जैफ्री प्रायोर के मार्फत खान-ए-कलात को भेजा जिसमें बतलाया गया कि अंग्रेज़ कलात को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में बनाये रखने को तैयार हैं। कलात की सुरक्षा के लिए यह भी वायदा किया कि अगले पचास वर्षों तक ब्रिटिश फौज कलात में बनी रहेगी। बस, मीर अहमद यार खान को एक शाही जिरगे की बैठक बुला कर बलोचिस्तान की स्वतंत्रता केलिए प्रस्ताव पारित करवाना था।

इस सन्देश को खान-ए-कलात ने तुरंत ही जिन्ना को बतला दिया। लार्ड माउन्टबेटन को जैसे ही इस बात का पता चला उन्होंने तुरंत एक टेलेक्स सर जैफ्री प्रायोर को किया : ‘शाही जिरगा रोक दो, खान-ए-कलात घोर अविश्वसनीय व्यक्ति है।’ 4 अगस्त 1947 को कलात मसले पर दिल्ली में एक राउंड टेबल कांफ्रेंस हुई जिसमें लार्ड माउन्टबेटन, जिन्ना, लिआक़त अली खान, कलात के मुख्यमंत्री और विधिक सलाहकार सुल्तान अहमद ने हिस्सा लिया। इस बैठक में जिन बिन्दुओं पर सहमति हुई, उसके अनुसार कलात 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हो जाएगा और उसका दर्ज़ा वही होगा जैसे वह सन 1838 में था। यदि भविष्य में कलात का किसी सरकार से मन-मुटाव हो जाता है तो वह जनमत का अधिकार रखती है और ऐसे में 1839 और 1841 की संधि के अनुरूप अंग्रेज़ सरकार उसे मदद प्रदान करेगी।

उसी दिन इस बैठक में ही एक अन्य समझौते पर भी दस्तखत किये गए। इस दूसरे समझौते को ‘स्टैंड-स्टिल’ समझौता भी कहा जाता है। पाकिस्तान और कलात के बीच हुए इस समझौते के अनुसार, पाकिस्तान सरकार इस बात से सहमत है कि कलात एक स्वतंत्र राज्य है और भारत की अन्य रिआसतों से भिन्न है। पाकिस्तानी सरकार कलात और ब्रिटिश सरकार के मध्य हुए करारों के अनुपालन के लिए बाध्य है अथवा नहीं इस पर विधिक विचार प्राप्त करेगी। इन विधिक बिन्दुओं पर राय प्राप्त करने के बाद कलात और पाकिस्तानी प्रतिनिधियों के बीच वार्ता जारी रहेगी। कलात के साथ 1839 से 1947 तक संपन्न ब्रिटिश संधि की जिम्मेदारियों के अनुपालन के लिए पाकिस्तान और कलात के बीच एक ‘स्टैंड-स्टिल’ करार होगा। पाकिस्तान और कलात के बीच रक्षा, विदेश मामलों, और संचार आदि विषयों पर शीघ्र ही कराची में बैठक होगी। इस ‘स्टैंड-स्टिल’ समझौते का प्रसारण आल इंडिया रेडियो से 11 अगस्त 1947 को किया गया। यह ‘स्टैंड-स्टिल’ समझौता ही पाकिस्तान के गले की फांस सिद्ध हो रहा है। इस समझौते ने ही विभिन्न बलोच राष्ट्रवादियों को पाकिस्तान के विरुद्ध एकजुट होने का मौका प्रदान किया है।

खान-ए-कलात और जिन्ना में विरोध :

खान-ए-कलात पाकिस्तान को विदेशी मामलों और संचार व्यवस्था की ज़िम्मेदारी ही देना चाहता था, बाकी सारे अधिकार वह कलात के पास ही रखना चाहता था, जबकि पाकिस्तान कलात का बिना शर्त विलय चाहता था। खान-ए-कलात को अब जिन्ना का असली चेहरा देखने को मिला। उसने जिन्ना के मंसूबों पर पानी फेरने केलिए तत्काल एक अंग्रेज़ डीवाई फेल को अपनी सेना की कमान थमा दी और उसे ही कलात का विदेश मंत्री भी बना दिया। 15 अगस्त 1947 को खान ने कलात को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया। न्यूयोर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान ने कलात को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता भी प्रदान कर दी।

जनवरी 1948 में पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लिआक़त अली खान ने कलात के रक्षा मंत्री से पेशावर में बातचीत की। जिन्ना ने भी अपनी सिबी यात्रा के दौरान खान-ए-कलात और अन्य कबीलाई सरदारों से मुलाक़ात की। 25 फ़रवरी को कलात नेशनल पार्टी ने पाकिस्तान में विलय के विरोध में कलात के निचले सदन ‘ऐवाने आम’ में प्रस्ताव पेश किया। विदेश और रक्षा मंत्री फेल सहायता की तलाश में लन्दन यात्रा पर निकल गए। पाकिस्तानी अख़बार ‘डान’ ने समाचार प्रकाशित किया कि ‘खान-ए-कलात की अंग्रेजों से सीधी संधि है।’ तेजी से घटित होते इस घटनाक्रम में दोनों पार्टियाँ बहुत जल्दी-जल्दी अपनी चालें चल रही थीं। पाकिस्तानी सेनाओं ने तत्काल कलात के बड़े हिस्से मकरान, खरन और लास्बेला पर कब्जा कर लिया जिसके बाद कलात की स्थिति काफी कमज़ोर हो गयी। इस्लाम के नाम पर कलात को हड़पने की जिन्ना की चाल का खान-ए-कलात को बहुत देर से अंदाजा चला।

जिन्ना ने कश्मीर केलिए भी ऐसा ही स्वप्न देखा था। जिन्ना भारत में हैदराबाद के निजाम को भी इस्लाम के नाम पर चारा खिला रहा था। निजाम भारत के बीच रह कर पाकिस्तानी बनना चाहता था। जिन्ना ने उसे अंतिम समय तक भारत में विलय से रोके रखा। खान-ए-कलात अब जिन्ना के ‘द्वि-राष्ट्र’ सिद्धांत को धता बता कर पाकिस्तान से अलग होना चाहता था किन्तु बलोचिस्तान केलिए देर हो चुकी थी।

बलोचिस्तान का भारत में विलय का अनुरोध :

27 मार्च 1948 को आल इंडिया रेडियो से एक समाचार प्रसारित हुआ :
‘……..दो महीने पहले कलात सरकार ने भारत सरकार से भारत में विलय का अनुरोध किया था : किन्तु भारतीय सरकार ने भौगोलिक स्थितियों को ध्यान में रख कर इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया।’ इसी दिन खान-ए-कलात से जिन्ना ने बन्दूक की नोंक पर पाकिस्तान में विलय संधि पर हस्ताक्षर करवा लिए थे जिसकी घोषणा एक अप्रैल 1948 को की गयी।

स्वतन्त्रता संघर्ष की शुरुआत :

कलात के पाकिस्तान में विलय के तत्काल बाद ही पाकिस्तान ने प्रिंस करीम जो कि खान-ए-कलात का भाई था को मकरान के गवर्नर के पद से हटा दिया। करीम भाग कर अफगानिस्तान पहुँचा जहाँ उसने कबायली सेना इकट्ठी कर पाकिस्तान के विरुद्ध गोरिल्ला युद्ध छेड़ दिया। उसने मलिक सईद और कादिर बख्श निज़मानी को अपना दूत बना कर काबुल भेजा और अफगान सरकार से सैनिक साहयता की मांग की। अफगानिस्तान ने करीम को कांधार में बने रहने दिया किन्तु उसे कोई सैनिक सहायता नहीं प्रदान करी। चूँकि, काफी संख्या में बलोच पाकिस्तान के साथ लगी अफगान और इरान सीमा में भी रहते हैं अतः अफगानिस्तान और इरान, पाकिस्तान में भड़की बलोची आग को अपने यहाँ नहीं आने देना चाहते थे।

पाकिस्तान ने खान-ए-कलात पर दबाव बनाया कि वह करीम को विद्रोही करार करे। पाकिस्तान ने करीम के विरुद्ध पंजाब, चमन, चस्मा और रास्ट्री इलाकों में सेना तैनात कर दी। करीम के विद्रोह में शुरू से ही फूट थी। जहाँ करीम, अनका और मलिक सईद सशस्त्र विद्रोह के हामी थे, मीर गौस बख्श बिज़ेन्जो (जिन्हें आगे चलकर वर्ष 1972-73 में बलोचिस्तान का गवर्नर भी बनाया गया) जैसे नेता बात-चीत के पक्षधर थे। खान-ए-कलात ने करीम को वापस बलोचिस्तान बुलाने का प्रयास किया किन्तु ज़राक्जई कबीले के मीर गौहर खान ज़ाहरी की मदद से करीम ने पाकिस्तानी सेना पर आक्रमण कर दिया, पाकिस्तान के मेजर जनरल अकबर खान ने उसे साथियों के साथ 16 जून 1948 को गिरफ्तार कर लिया।

पाकिस्तान की मंशा खान-ए-कलात पर भी आक्रमण करने की थी किन्तु इसे जिन्ना के कहने पर गोपनीय रखा गया। बलोचिस्तान के इस तथाकथित पहले विद्रोह में लगभग हज़ार से अधिक बलोच शहीद हुए, करीम की गिरफ्तारी के साथ ही इस विद्रोह की आंच धीमी पड़ी।

इस विद्रोह की असफलता के कारण :

जैसा की मैं पूर्व में लिख आया हूँ करीम के साथी ही खेमों में बंटे हुए थे। इस वजह से नेतृत्व में ही असमंजस की स्थिति बनी हुई थी। अफगानिस्तान और ईरान इस मसले में हाथ नहीं डालना चाहते थे। जिन्ना स्वयं को अमरीका की गोद में बैठा चुके थे, बची-खुची कोर-कसर लिआकत अली खान ने यह कह कर पूरी कर दी थी कि पैसा और शस्त्र अमरीका के, फौज पाकिस्तानी, ऐसे में अमरीका इस पचड़े में दूर-दूर तक नहीं था। दूसरे उस समय इरान में शाह रज़ा पहलवी शासन में थे जो इस क्षेत्र में अमरीकी हितों के बहुत बड़े संरक्षक थे। इस कारण से भी अमरीका को इस विद्रोह से कोई लेना-देना नहीं था।

विद्रोह की इस शतरंजी बिसात में अंतर्राष्ट्रीय खिलाडियों की कमी थी। खुद खान-ए-कलात ने इस विद्रोह को लेकर अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की थी। सार्वजनिक रूप से वह खुद को पाकिस्तान में विलय का पक्षधर बतलाता रहा जब की परदे के पीछे वह विद्रोहियों को धन देता रहा।

खान-ए-कलात का विद्रोह :

1958 में खान-ए-कलात ने पाकिस्तान से छुटकारा पाने केलिए विद्रोह का बिगुल बजाया। तत्कालीन राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा ने खान-ए-कलात को फौज भेज कर उसके महल से राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार करवा लिया और 7 अक्टूबर 1958 को पाकिस्तान में मार्शल-ला लागू कर दिया। किन्तु 27 अक्टूबर 1958 में जनरल मोहम्मद अयूब खान ने इस्कंदर मिर्ज़ा का तख्ता पलट पाकिस्तान पर सैनिक तानाशाही की शुरुआत कर दी।

खान-ए-कलात के गिरफ्तार होते ही समूचे बलोचिस्तान में हिंसा फ़ैल गयी। यह दौर साल भर से अधिक चलता रहा। खान-ए-कलात के समर्थन में ज़रक्जई कबीले के सरदार बाबू नवरोज़ ने सशस्त्र विद्रोह किया। उसके हजारों सहयोगियों ने लेफ्टिनेंट कर्नल टिक्का खान (बुचर ऑफ़ बंगलादेश) के नेतृत्व वाली पाक फौज को कड़ी टक्कर दी। कहा जाता है टिक्का खान ने कुरान पर एतबार दिखला कर नवरोज़, उसके बेटों और भतीजों से आत्मसमर्पण करवा लिया। नवरोज़ के बेटों और भतीजों को हैदराबाद जेल में फांसी पर लटका दिया गया जब कि नब्बे वर्ष की आयु में नवरोज़ की मृत्यु भी हैदराबाद जेल में ही हुई। नवरोज़ के आत्म समर्पण के बाद टिक्का खान ने नवरोज़ को मदद प्रदान करनेवाले ज़रक्जई, अचकजई, मर्री और बुगती कबीलों पर भीषण अत्याचार किये। बलोच इतिहासकारों के अनुसार टिक्का खान ने कई हज़ार बेगुनाह बलोच नागरिकों की हत्या की।

भुट्टो और बलोचिस्तान :

1970 में बलोचिस्तान के रूप में एक समन्वीकृत प्रांत के गठन को लेकर बलोच सरदारों और पाकिस्तान सरकार के बीच फिर मतभेद उभरे। 1970 के चुनावों में मुजीबुर्रहमान की नेशनल अवामी पार्टी और जमीअत-उल-उलेमा-इस्लामी पार्टिओं ने बहुमत हासिल कर लिया था, उन्हें पकिस्तान में सरकार बनाने के लिए निमंत्रित किया जाना था किन्तु अवसरवादी भुट्टो ने याह्या खान से गठ जोड़ कर ऐसा नहीं होने दिया। उसने बलोचों द्वारा की जा रही स्वायत्तता और बलोचिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में बलोचिस्तान की रोयल्टी की मांग को भी सिरे से खारिज करवा दिया। पूर्वी पाकिस्तान और बलोचिस्तान में लगभग एक साथ ही विद्रोह की आंधी बहने लगी। भुट्टो की अहमन्यता ने उसे अताउल्लाह खान मेंगल और खान अब्दुल वली खान जैसे सुलझे हुए नेताओं की बात नहीं मानने दी। बलोचिस्तान का यह विद्रोह खासा गंभीर रहा। भुट्टो ने छः महीने के अंतराल में बलोचिस्तान की दो सरकारों को गिरा दिया। प्रान्त के दो मुख्यमंत्रियों, दो गवर्नरों और चौआलिस सेनेट सदस्यों को पाकिस्तान के विरुद्ध षड्यंत्र के आरोप में जेल में ठूंस दिया। वह सुप्रीम कोर्ट से नेशनल आवामी पार्टी को प्रतिबंधित करवाने में भी सफल रहा।

बलोचिस्तान में मर्री, मेंगल, बुगती और ज़राक्जई कबीलों और पख्तूनों द्वारा शुरू किया गया असहयोग आन्दोलन शीघ्र ही सशस्त्र संघर्ष में बदल गया। बलोचिस्तान पीपल्स लिबरेशन फ्रंट के बैनर के नीचे मीर हज़ार मर्री के नेतृत्व में यह बहुत बड़ा विद्रोह साबित हुआ। इसमें लगभग लाख की संख्या में सशस्त्र बलोच विद्रोहियों ने पाकिस्तान के दांतों से पसीने निकाल दिए। पाकिस्तान ने अमरीका और ईरान से सहायता की गुहार लगायी। अमरीका ने ईरान में शाह रज़ा पहलवी को पाकिस्तान की मदद करने को कहा। परिणाम यह रहा कि ईरानी हवाई बम-वर्षकों और हेलीकाप्टरों की मदद से पाकिस्तान ने इस विद्रोह में लगभग 50,000 बलोचियों को शहीद किया।

पाकिस्तानी विघटन का केंद्र बिन्दु :

भुट्टो को फांसी पर लटकाने के बाद जिया ने बलोचिस्तान पर ध्यान दिया और भारत के उत्तर प्रदेश में जन्मे जनरल रहीमुद्दीन खान को वहां का गवर्नर बना कर भेजा। रहीमुद्दीन ने बलोचिस्तान का पूरा प्रशासनतंत्र अपने हाथ में केन्द्रित कर लिया और प्रान्त में बड़ी कडाई के साथ शासन किया। जिसकी वजह से काफी अलगाववादी इस आन्दोलन से टूट गए। अताउल्लाह मेंगल और नवाब अकबर खान बुगती जो अब भी विद्रोह का झंडा उठाये हुए थे खासे कमज़ोर पड़ गए। अफगानिस्तान में तालिबानों के आने के बाद खैरबख्श मर्री और अताउल्लाह मेंगल जैसे बलोच विद्रोहियों को काबुल छोड़ना पड़ा। उन्होंने बेनजीर और नवाज़ शरीफ सरकारों द्वारा प्रस्तुत शांति प्रस्तावों को स्वीकार कर घर वापसी की।

पाकिस्तान ने बलोचिस्तान में ढांचागत परिवर्तन प्रारंभ कर दिया। चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर और ग्वादार पोर्ट को चीन के अधिकार में दिए जाने को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। बलोचिस्तान में भारी तादाद में पंजाबी और मोहाजिर मुसलमानों को स्थायी रूप से बसाया जारहा है। वर्ष 2006 में नवाब अकबर अली खान बुगती को मार गिराने के बाद मुशर्रफ ने यह घोषणा की थी की बलोचिस्तान का विद्रोह अब पाकिस्तान से समाप्त हो गया है, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। बलोचिस्तान आज भी संघर्ष के दौर से गुज़र रहा है।

अमरीका-भारत की सामरिक मित्रता, चीन-पाकिस्तान-उत्तरी कोरिया-म्यांमार गठबंधन को अपनी निगाह में भी रखेगी।
बलोचिस्तान को पाकिस्तान से अलग कर अमरीका को बिना किसी खासे निवेश के अफगानिस्तान के साथ-साथ बलोचिस्तान जैसा एहसानमंद मित्र देश भी प्राप्त होगा। आने वाला समय निश्चितरूप से पाकिस्तान के पक्ष में नहीं है।

बरहमदाग बुगती:

बलोच रिपब्लिकन पार्टी के नेता बरहमदाग बुग्ती ने बलोचिस्तान के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके बयान पर धन्यवाद दिया है। उन्होंने भारत से अनुरोध किया कि वह बलोचिस्तान में मानवाधिकारों के उल्लंघन और पाकिस्तानी सेना की और से सुनियोजित नरसंहार का मुद्दा उठाएं। फेसबुक पेज पर पोस्ट वीडियो संदेश में उन्होंने भारत का समर्थन मांगा है। श्री बुगती ने कहा कि बलोचिस्तान के लोग स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी सुरक्षा बलों की हिरासत में हजारों युवाओं पर अत्याचार किया जा रहा है। स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में बलोचिस्तान, गिलगित और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लोगों को उनके प्रति सद्भावना दिखाने के लिए आभार व्यक्त किया।
सलमान खुर्शीद की बलोच समस्या:

ज़ियाउलहक़ द्वारा नियुक्त बलोचिस्तानी गवर्नर रहीमुद्दीन की शादी पूर्व भारतीय राष्ट्रपति डाक्टर जाकिर हुसैन की भतीजी के साथ हुई थी।
ज़ाकिर हुसैन वर्तमान कांग्रेसी सलमान खुर्शीद के नाना थे। रहीमुद्दीन की पत्नी एक रिश्ते से सलमान की मौसी हुईं, और रहीमुद्दीन उनके मौसा हुए। इसका उल्लेख इस उद्देश्य के साथ किया जारहा है ताकि पाठक इस मसले पर उनके द्वारा प्रधानमंत्री के उलट की गई टिप्पणी की पृष्ठभूमि को समझ सकें।

Sudendhu Ojha(सुधेन्दु ओझा, 9868108713, 9650799926)

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