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अयोध्या विवाद में कब-कब क्या क्या हुआ…

babri अयोध्या विवाद में कब-कब क्या क्या हुआ...

नई दिल्ली। विवादित परिसर का विवाद आजादी के पहले से दोनों समुदायों के बीच चला आ रहा है। ये विवाद साल 1949 के बाद ज्यादा गरम हो गया। जब विवादित परिसर में 22 और 23 दिसम्बर की रात मूर्तिया रखी गईं। शुरूआती दौर में इस मामले में केवल विवाद इतना था कि विवादित परिसर में स्थित रामचबूतरे पर ही मूतियां रखी जायें परिसर के अंदर से बाहर किया जाये। विवाद अदालतों तक जा पहुंचा । अदालत में यथास्थिति का आदेश दे दिया।

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किन बातें को अदालत को तय करना है
विवादित परिसर में क्या पहले से कोई मंदिर था जिसे तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया था। क्या विवादित इमारत कोई मस्जिद थी। इस ढांचे का निर्माण कब हुआ था और क्या मीरबंकी ने इसका निर्माण कराया था । ऐसे कई बड़े और छोटे बिदुओं पर कोर्ट को अपना विचार और आदेश देना था। लेकिन इस दौरान अदालतें लगातार इस मामले में अपना कोई

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ठोस निर्णय देती उसके पहले ही इस ढांचे की इति श्री कर दी गई। साल 1885 में भी अदालत ने एक फैसला जारी करते हुए रामचबूतरे पर हिन्दू समुदाय को पूजा पाठ करने की इजाजत दी थी। लेकिन उसके बाद निर्मोही अखाड़ा ने उस चबूतरे पर मंदिर बनाने का दावा किया था लेकिन अदालत ने उस दावे को खारिज कर दिया था। जो कि विवाद का बड़ा कारण बन गया और उसके बाद से लगातार इस मसले पर विवाद बढ़ता रहा है।

 

क्या क्या हुआ इस विवाद में
इस विवाद का सफर 1528 से शुरू हुआ जब इस स्थल पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया। मना जाता है कि मुगल बादशाह बाबर ने इस मस्जिद का निर्माण कराया था । इसी वजह से इसका नाम बाबरी मस्जिद पड़ा था। इस मुद्दे को लेकर शुरूआत से ही दोनों समुदायों में कलह बनी रही।

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साल 1853 में हिन्दुओं की ओर से इस स्थल पर अपना हक जताया गया। जिसके बाद दोनों समुदाय के लोगों के बीच एक बड़ी हिंसात्मक वारदात भी हुई।तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इसके बाद विवादित परिसर के बाहर एक बाड़ खड़ी कर हिन्दूओं और मुसलमानों के लिए इबातद की अलग-अलग व्यवस्था बना दी।

अदालती सफर
इस पूरे प्रकरण में पहला मामला 1885 में कोर्ट की चौखट पर पहुंचा जब महंत रघुबर दास ने बाबरी मस्जिद के पास एक राम मंदिर बनाने की इजाजत मांगते हुए अपील फैजाबाद की कोर्ट में दाखिल की। अभी प्रकरण अदालत में ही था कि हिन्दुओं की तरफ से देश की आजादी के बाद 23 दिसम्बर को विवादित स्थल के भीतर भगवान राम की एक मूर्ति की स्थापना कर दी गई। तब से उसी जगह पर हिन्दुओं ने पूजापाठ करना शुरू कर दिया। इसके साथ ही मुसलमानों ने नमाज पढ़नी बंद कर दी। लेकिन फिर सरकार ने वहां प्रतिबंध लगाकर यथा स्थिति बरकारार रखने को कहा।

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साल 1950 में 16 जनवरी को गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद की अदालत में हिन्दूओं को पूजापाठ की इजाजत देने के लिए एक याचिका डाली। इसके साथ ही अदालत से मूतियां हटाने पर न्यायिक रोक की मांग भी की। इसी साल 5 दिसंबर 1950 में महंत रामचन्द्र दास परमहंस ने हिन्दूओं को प्रार्थना जारी रखने और बाबरी मस्जिद में राममूर्ति रखने की इजाजत मांगी। इसके बाद साल 1959 में निर्मोही अखाड़े ने विवादित स्थल पर अपना मालिकाने हक का दावा पेश किया। जिसमें अखाड़े ने विवाद स्थल को उसे दिए जाने का दावा पेश किया। अब इस मामले में उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने साल 1961 को 18 दिसंबर को अदालत में अपने मालिकाना हक जताते हुए दावा पेश किया।

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इस पूरे प्रकरण में साल 1984 में विश्व हिन्दू परिषद ने बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने और राम जन्म स्थल को स्वतंत्र कराने के साथ एक विशाल मंदिर के निर्माण का अभियान शुरू किया। इसके लिे उनसे बाकायदे एक समिति का गठन भी किया। साल 1986 में 1 फरवरी को फैजाबाद जिला न्यायालय ने विवादित स्थल का ताला खोलन और हिन्दुओं को पूजा पाठ करने की इजाजत दे दी। हांलाकि कोर्ट के इस फैसले के बाद नाराज मुसलमानों ने का बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया।

इस पूरे मामले में अब राजनीतिक दलों ने अपनी रोटियां सेंकनी शुरू कर दी। भारतीय जनता पार्टी ने वीएचपी को औपचारिक समर्थन देना शुरू करके राममंदिर आंदोलन का एक नया स्वरूप दे दिया। इसके बाद विराजमान रामलला के नाम से इस मामले में 5वां मुकदमा 1 जुलाई, 1989 को कोर्ट के दहलीज पर जा पहुंचा। अब इस मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीवगांधी ने अगुवाई करते हुए बाबरी मस्जिद के नजदीक शिलान्यास की इजाजत दे दी।

रक्तरंजित हुआ इतिहास
अब ये मामला कोर्ट के साथ राजनीति के अखाड़े में भी दांव आजमाने लगा। इस मामले में बीजेपी के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवानी ने गुजरात के सोमनाथ से एक रथयात्रा अयोध्या तक निकालने का आयोजन किया, जिसके बाद देश में कई जगह पर दंगे हुए। अक्टूबर में 1990 में लालकृष्ण आडवानी को उनकी रथयात्रा के साथ बिहार के समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। जिसके बाद बीजेपी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह की सरकार से समर्तन वापस ले लिया। सरकार अल्पमत में जा पहुंची।

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फिर 31 अक्टूबर को अयोध्या की गलियों में कारसेवकों के ऊपर तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कड़ा शिकंजा कसने और रामनगरी में परिंदा पर भी ना मारने की बात करते हुए सुरक्षा के साथ पूरे प्रदेश में एक अघोषित कर्फ्यू लगा दिया। चारों ओर कारसेवकों को अयोध्या में पहुंचने से रोकने की कोशिश की जाने लगी। लेकिन ठीक 31 अक्ठूबर को देवथानी एकादशी के दिन कारसेवकों ने अयोध्या में सिंघनाद किया। मुलायम सरकार ने तत्काल उन कारसेवकों के उन्माद को रोकने के लिए पुलिस बल का प्रयोग किया। इसके बाद कारसेवकों के उन्माद को रोका जा सका। हांलाकि ठीक 2 नवम्बर को पूर्णिमा के दिन दुबारा कारसेवकों ने विवादित स्थल की ओर चूक किया । उसके बाद अयोध्या की गलियों मंदिरों में घुसकर पुलिस ने गोलियां चलाई । पुलिस रिकार्ड में 5 से 12 लोगों की मौत होने की बात आती है। लेकिन अयोध्या के लोगों की माने तो सैंकड़ों की संख्या में लोग मारे गये थे। इस कांड के बाद मुलायम सरकार की पूरे देश में बहुत आलोचना हुई।

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उसके सूबे में भाजपा की सरकार आई साल 1991 में कल्याण सरकार ने विवादित स्थल के आस-पास का 2.77 एकड़ हिस्सा अपने अधिकार में ले लिया। इसी साल देश के इताहास का को काला दिन भी आया जब विवादित स्थल पर खड़ा ढांचा गिरा दिया गया। वो दिन था 6 दिसम्बर 1992 का , जिसके बाद देश में सांप्रदायिक दंगे हुए। लोगों ने जल्दबाजी में एक अस्थाई मंदिर भी बना दिया। देश के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने मस्जिद के पुर्न निर्माण की घोषणा भी की। इसके बाद इस प्रकरण पर जांच के लिए एक आयोग का गठन भी किया गया। जिसका नाम एम.एस. लिब्रहान आयोग था।

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इसके बाद तारीखो में ही ये मामला गरम होता रहा हिन्दू संगठन इस दिन को शौर्य दिवस तो मुस्लिम संगठन काला दिन के तौर पर मनाने लगे। हांलाकि इस मामले में हाई कोर्ट ने साल 30 सितंबर को अपना एक फैसला भी दिया जिसके बाद दोनों पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खड़ खटाया है। लेकिन विवाद अभी वहीं ढांचा गिर गया। लोग मर गये पर अयोध्या वही स्थल वही है। देश की राजनीति शक्तियों के पास भी इस बात का उत्तर नहीं है कि वहां क्या था।

piyush-shukla(अजस्रपीयूष)

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